Why is Ghosh's grandfather angry Only cricket journalism is left!

क्यों नाराज हैं घोष दादा? बस क्रिकेट पत्रकारिता बची है!

Clean bold/ राजेंद्र सजवान

देश के 82 वर्षीय खेल पत्रकार श्याम सुंदर घोष मीडिया से नाराज हैं। महान फुटबाल ओलंपियन निखिल नंदी के देहावसान की खबर को नहीं छापने या सम्मान जनक स्थान नहीं दिए जाने पर उन्होंने फेसबुक में अपनी पोस्ट पर जो पीड़ा व्यक्त की है उसे पढ़ कर भारतीय मीडिया और खासकर समाचार पत्र पत्रिकाओं के ठेकेदारों और तथाकथित बड़े पत्रकारों का सिर शर्म से जरूर झुक जाना चाहिए।

मेलबोर्न ओलंपिक के सेमीफाइनल और तीसरे स्थान के लिए खेले गए मैचों में नंदी ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया था। तब उन्हें समाचार पत्रों में जमकर सराहा गया था। लेकिन उनके देह त्याग की खबर को फुटबाल सिटी कोलकाता के ज्यादातर अखबारों में या तो जगह नहीं मिल पाई या किसी कोने में उन्हें छापा गया। घोष दादा ने भारतीय खेलों की बदहाली को बखूबी पानी पोस्ट में उतारा है और बताने का प्रयास किया है कि कैसे देश के तमाम खेल क्रिकेट के सामने बहुत बौने हो गए हैं।

द स्टेट्समैन और दैनिक स्टेट्समैन के संपादक रह चुके घोष ने अपने अखबार पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि किस प्रकार स्टेट्समैन ने तीन खेल पेज होने के बावजूद नंदी को चंद पंक्तियों में निपटा दिया, जबकि ऑस्ट्रेलिया पर भारतीय क्रिकेट टीम की जीत को दो पेज समर्पित कर दिए गए। ऐसे जैसे कि भारत ने विश्व कप जीता हो। उन्हें लगता है कि अखबारी दुनिया पर ऐसे लोग राज कर रहे हैं, जिनका खेलों से कोई लेना देना नहीं है। यह भी हो सकता है कि खेल को कवर करने वाले पत्रकारों को खेलों की समझ ही ना हो या वे क्रिकेट के अलावा किसी और खेल को जानते समझते ही ना हों।

देखा जाए तो घोष दादा की नाराजगी जायज है।
पिछले चालीस सालों में यदि किसी खेल ने कामयाबी का शिखर चूमा और सही मायने में नाम-दाम कमाया है तो वह निसंदेह क्रिकेट है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि क्रिकेट के नाम पर अपने देश में सब कुछ बिकता है। फिर चाहे गेंद बल्ले हों, क्रिकेट मैदान हों, खिलाड़ी या खेल को चलाने वाले प्रशासक ही क्यूँ ना हों, हर कोई बिकाऊ है, इसलिए कमाऊ भी है। खिलाड़ी लाखों करोड़ों में बिक रहे हैं, मां बाप भी खुद को बेच कर बेटे के लिए क्रिकेट खरीद रहे हैं। अन्य खेलों की बात करें तो क्रिकेट के सामने किसी की कोई हैसियत नहीं है। ऐसा क्यों, यह सवाल अक्सर पूछा जाता है?

यह सही है कि कपिल की टीम द्वारा विश्व कप जीतने के बाद से भारत में क्रिकेट का विकास और विस्तार शुरू हुआ। सुनील गावसकर, कपिल देव, मोहिंदर अमरनाथ जैसे खिलाड़ी घर घर जाने पहचाने गए। तत्पश्चात रवि शास्त्री, श्री कांत, सचिन, गांगुली, कुंबले, द्रविड़, धोनी और विराट जैसे खिलाड़ियों ने भारतीय क्रिकेट को नई उँचाइयों तक पहुँचाया। आज क्रिकेट खिलाड़ी घर घर में जाने पहचाने जाते हैं| दूसरी तरफ हॉकी फुटबाल, एथलेटिक, तैराकी, कुश्ती, मुक्केबाज़ी, बैडमिंटन, टेनिस, बास्केट बाल, वॉली बाल आदि खेल सौ साल में भी क्रिकेट जैसा मुकाम हासिल नहीं कर पाए। ऐसा इसलिए क्योंकि इन खेलों ने मौकों का फ़ायदा नही उठाया। या यूँ भी कह सकते हैं कि उनके पास क्रिकेट जैसे नेतृत्व का अभाव रहा।

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हर बच्चे और युवक का पहला सपना क्रिकेटर बनने का होता है। उसे और कोई खेल कतई नहीं भाता। बाकी खेलों में बचे खुचे खिलाड़ी ही जाते हैं। चूँकि खिलाइयों की संख्या ज़्यादा है इसलिए क्रिकेट को अपेक्षाकृत सब कुछ ज़्यादा चाहिए होता है। जहाँ एक तरफ बाकी खेलों के सिर पर छत नहीं है तो दूसरे खेल दर बदर हैं। इतने से काम नहीं चलता तो खेत खलिहानों में क्रिकेट की पिच बिछा दी गई है और किसान खेती की बजाय क्रिकेट से ज़्यादा कमाई कर रहे हैं। लेकिन मीडिया हाउसों और अखबार के दफ्तरों में क्रिकेट की घुसपैठ समझ नहीं आती।

क्रिकेट की दादागिरी इस हद तक है कि टीवी चैनलों, अख़बारो और पत्रिकाओं में नब्बे प्रतिशत स्थान उसके कब्जे में हैं। किसी भी अख़बार को उठा कर देख लें सिर्फ़ और सिर्फ़ क्रिकेट दिखाई पड़ती है। बाकी खेल कहीं नज़र नहीं आते। कुछ साल पहले तक विभिन्न खेल पत्रिकाओं में क्रिकेट के साथ अन्य खेलों को भी समुचित स्थान मिलता था। अब ऐसा नहीं है। बाकी खेलों को स्थान देने वाले माध्यम लगभग मृतवत पड़े हैं।

घोष दादा उस युग के पत्रकार हैं जब हॉकी और फुटबाल में भारत एक बड़ी ताकत था। चार ओलंपिक खेलने वाली और दो एशियाड जीतने वाली फुटबाल का हाल किसी से छिपा नहीं है। हॉकी में पिछले चालीस सालों से अपयश कमा रहे हैं और बाकी खेल भी गंभीर बीमारी के शिकार हैं। ऐसे में अखबार और पत्रकार यदि क्रिकेट के गुलाम बन गए हैं तो हैरानी कैसी? उनमें से ज्यादातर ने मेवा लाल, पीके,नंदी, रहीम, प्रसून, इंदर ,मगन जैसों के नाम सुने तक नहीं होंगे या क्रिकेट के पागलपन के चलते बाकी खेलों के महान खिलाड़ियों के नाम भुला दिए गए हैं। यही कारण है कि निखिल नंदी की मौत की खबर बड़ी खबर नहीं बन पाई। लेकिन अब वह दिन भी ज्यादा दूर नहीं जब भारतीय फुटबाल की मौत की खबर को भी स्थान नहीं मिलेगा।

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