kiran jiju

तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाता हूँ:

क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान

देश में खेलों को बढ़ावा देने और प्रतिभावान खिलाड़ियों की खोज के लिए खेल मंत्रालय ने 500 समर्पित खेल अकादमियों को आर्थिक सहायता देने और अत्याधुनिक उपकरणों से सुसज्जित करने का फ़ैसला किया है। मंत्रालय के अनुसार 2028 ओलंपिक को लक्ष्य बना कर 14 प्रमुख खेलों की देशभर में चलाई जा रही अकादमियों को सबसे पहले सरकारी सहायता देने का प्रावधान है। इस योजना में प्राइवेट अकादमियों को भी अलग से सहायता दी जाएगी।

दरअसल, खेल मंत्रालय तुरत फुरत में ही भारत को खेल महाशक्ति बनाने के लए कटिबद्ध है। इस कोशिश में खेलो इंडिया योजना के तहत खिलाड़ियों को खोजा जा रहा है और उन्हें बेहतर ट्रेनिंग के लिए स्थापित अकादमियों में भेजा जा रहा है। खेल मंत्रालय के अनुसार देश के दूर दराज प्रदेशों में कई ट्रेनिंग सेंटर हैं जिनसे अनेक खिलाड़ी निकले हैं। हॉकी, फुटबाल, बैडमिंटन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी, एथलेटिक निशानेबाज़ी, वेट लिफ्टिंग और कई अन्य खेलों में विभिन्न अकादमियों ने बड़ा काम किया है। लेकिन अनेक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी तैयार करने वाले कोचों और उनकी अकादमियों को समुचित सम्मान नहीं मिल पाया।

खेल अकादमियों को सरकारी सहायता देने की नई योजना के तहत खेल संघों और भारतीय खेल प्राधिकरण को प्रतिभाओं को तलाशने और उन्हें सहयोग देने का जिम्मा सौंपा गया है। अकादमियों की जाँच पड़ताल और उनके रिकार्ड पर मुहर लगाने के लिए पूर्व खिलाड़ियों और ओलंपिक पदक विजेताओं को नियुक्त किया जाएगा। बेशक , चैम्पियन खिलाड़ी और खेल की गहरी समझ रखने वालों को दाइत्व सौंपना श्रेयकर रहेगा। लेकिन यह ना भूलें कि देश में चलाई जा रही अधिकांश खेल अकाडमियों का कारोबार बड़े नाम वाले खिलाड़ी ही कर रहे हैं। उन्हें पदक जीतने पर लाखों करोड़ों तो दिए जाते हैं, अकादमियों के लिए राज्य सरकारों द्वारा कई एकड़ ज़मीन भी दी जाती है। लेकिन ज़्यादातर की अकादमियाँ अच्छे खिलाड़ी तैयार करने में प्राय नाकाम रही हैं।

भले ही खेल मंत्री ने अकादमियों को बढ़ावा देने वाली टीम में कई नामी ओलम्पियनों और चैम्पियन खिलाड़ियों को शामिल किया है लेकिन एक बड़े वर्ग को इस बात का डर है कि मंत्रालय के मुँह लगे खिलाड़ी, “तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी खुजाता हूँ” की तर्ज पर काम कर अपने स्वार्थ साधने को प्रमुखता देंगे और ज़मीनी स्तर पर मेहनत करने वालों की अनदेखी हो सकती है। अक्सर देखा गया है कि हमारे पूर्व चैम्पियनों में से ज़्यादातर ने खेल प्रोत्साहन के नाम पर दुकाने खोल रखी हैं। उनके पास नाम है, जिस कारण से अधिकांश माता पिता अपने बच्चों को उनके संस्थान के हवाले कर देते हैं। लेकिन कुल मिलाकर पूर्व चैम्पियनों द्वारा चलाई जा रही अकडमियों का रिकार्ड बेहद खराब रहा है।

दूसरी तरफ अभाव और सीमित साधनों के चलते चैंपियन तैयार करने वालों की प्राय अनदेखी हुई है। देश को अंतरराष्ट्रीय पदक दिलाने वाले प्राइवेट सेंटरों को आशंका है कि बड़े नाम वाले खिलाड़ी और कोच मिली भगत का खेल रच कर अपने अपने स्वार्थ साध सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो आठ- दस सालों में खेल महाशक्ति बनने का सपना शायद ही पूरा हो। बेशक, खेल मंत्रालय का प्रयास सराहनीय है लेकिन सरकारी सहायता की हकदार आकमियों का रिकार्ड ठोक बजा कर देखा जाना चाहिए।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *